Sunday, March 1, 2009

रामलीला

इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बंदरों के भद्दे चेहरे लगाए, आधी टाँगों का पाजामा और काले रंग काऊँचा कुर्ता पहने आदमियों को दौड़ते, हू-हू करते देखकर अब हँसी आती है, मज़ा नहीं आता। काशी की लीलाजगद्विख्यात है। सुना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। मैं भी बड़े शौक से गया, पर मुझे तो वहाँ की लीला औरकिसी वज्र देहात की लीला में कोई अंतर दिखाई दिया। हाँ, रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे हैं।राक्षसों और बंदरों के चेहरे पीतल के हैं, गदाएँ भी पीतल की हैं, कदाचित बनवासी भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम केहों; लेकिन साज-सामान के सिवा वहाँ भी वही हू-हू के सिवाय कुछ नहीं। फिर भी लाखों आदमियों की भीड़ लगीरहती। लेकिन एक ज़माना वह था, जब मुझे भी रामलीला में आनंद आता था। आनंद तो बहुत हलका-सा शब्द है।वह आनंद उन्माद से कम था। संयोगवश उन दिनों मेरे घर से बहुत थोड़ी दूर पर रामलीला का मैदान था, औरजिस घर में लीला-पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था, वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था। दो बजे दिन से पात्रोंकी सजावट होने लगती थी। मैं दोपहर ही से वहाँ जा बैठता, और जिस उत्साह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे कामकरता, उस उत्साह से तो आज अपनी पेंशन लेने भी नहीं जाता।

एक कोठरी में राजकुमारी का शृंगार होता था। उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर पाउडर लगायाजाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की बुँदकियाँ लगाई जाती थीं। सारा माथा, भौंहें, गाल, ठोड़ी, बुँदकियोंसे रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल था। वही बारी-बारी से तीनों पात्रों का शृंगार करता था। रंग कीप्यालियों में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था। जब इन तैयारियों के बाद विमान निकलता, तो उस पर रामचंद्र जी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास, जो गर्व, जो रोमांच होता था, वह अब लाट साहब के दरबारमें कुरसी पर बैठकर भी नहीं होता। एक बार जब होम-मेंबर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक प्रस्ताव काअनुमोद किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और रोमाच था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्रनायब-तहसीलदारी में नामजद हुआ, तब भी ऐसी ही तरंगे मन में उठी थीं; पर इनमें और उस बाल-विह्वलता मेंबड़ा अंतर हैं। तब ऐसा मालूम होता था कि मैं स्वर्ग में बैठा हूँ। निषाद-नौका-लीला का दिन था। मैं दो-चार लड़कोंके बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा था। आज शृंगार देखने गया। विमान भी निकला पर मैंने खेलना छोड़ा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढ़कर आत्मत्याग की ज़रूरत थी, जितनामैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो मैं कब का भाग खड़ा होता, लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है।ख़ैर, दाँव पूरा हुआ। अगर मैं चाहता, तो धांधली करके दस-पाँच मिनट और पदा सकता था, इसकी काफ़ी गुँजाइशथी, लेकिन अब इसका मौका था। मैं सीधे नाले की तरफ़ दौड़ा। विमान जल-तट पर पहुँच चुका था। मैंने दूर सेदेखा - मल्लाह किश्ती लिए रहा है। दौड़ा, लेकिन आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था। आखिर जब मैं भीड़हटाता, प्राण-पण से आगे बढ़ता घाट पर पहुँचा, तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचंद्र पर मेरी कितनीश्रद्धा थी! अपने पाठ की चिंता करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिससे वह फेल हो जाएँ। मुझसे उम्र ज़्यादाहोने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेकिन वही रामचंद्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे, मानोमुझसे जान-पहचान ही नहीं। नकल में भी असल की कुछ--कुछ बू ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदाही तीखी रही है, वह मुझे क्यों उबारते? मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा, जिसकी गरदन पर पहलीबार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ़ दौड़ता, पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार किसी के कानों तक पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँझेलीं, पर उस समय जितना दु: हुआ, उतना फिर कभी हुआ।

मैंने निश्चय किया था अब रामचंद्र से कभी बोलूँगा, कभी खाने की कोई चीज़ ही दूँगा, लेकिन ज्यों ही नाले को पारकर के वह पुल की ओर लौटे, मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया, और ऐसा खुश हुआ, मानो कोई बात ही हुई थी।

रामलीला समाप्त हो गई थी। राजगद्दी होनेवाली थी, पर जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चंदा कम वसूल हुआ था।रामचंद्र की इन दिनों कोई बात भी पूछता था। घर ही जाने की छुट्टी मिलती थी, भोजन का ही प्रबंध होताथा। चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था। बाकी सारे दिन कोई पानी को नहींपूछता। लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचंद्र ही थे। घर पर मुझे खाने कीकोई चीज़ मिलती, वह लेकर रामचंद्र दे आता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था, उतना आप खा जानेमें कभी मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर रामचंद्र वहाँ मिलतेतो उन्हें चारों ओर तलाश करता, और जब तक वह चीज़ उन्हें खिला लेता, मुझे चैन आता था। ख़ैर, राजगद्दीका दिन गया, रामलीला के मैदान में एक बड़ा-सा शामियाना ताना गया। उसकी खूब सजावट की गई। वेश्याओंके दल भी पहुँचे। शाम को रामचंद्र की सवारी निकली, और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गई। श्रद्धानुसारकिसी ने रुपए दिए, किसी ने पैसे। मेरे पिता पुलिस के आदमी थे; इसलिए उन्होंने बिना कुछ दिए ही आरती उतारी।उस वक्त मुझे जितनी लज्जा आई, उसे बयान नहीं कर सकता। मेरे पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था। मेरेमामा जी दशहरे के पहले आए थे और मुझे एक रुपया दे गए थे। उस रुपए को मैंने रख छोड़ा था। दशहरे के दिन भीउसे खर्च कर सका। मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया। पिता जी मेरी ओर कुपित-नेत्रों सेदेखकर रह गए। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं; लेकिन मुँह ऐसा बना लिया, जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टतासे उनके रोब में बट्टा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई। आरती की थाली रुपयों और पैसोंसे भरी हुई थी। ठीक तो नहीं कह सकता, मगर अब ऐसा अनुमान होता है कि चार-पाँच सौ रुपयों से कम थे।

चौधरी साहब इनसे कुछ ज़्यादा ही खर्च चुके थे। उन्हें इसकी बड़ी फिक्र हुई कि किसी तरह कम-से-कम दो सौ रुपएऔर वसूल हो जाएँ और इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही मालूम हुई कि वेश्याओं द्वारा महफ़िल में वसूली हो।जब लोग आकर बैठ जाएँ, और महफ़िल का रंग जम जाए, तो आबादीजान रसिकजनों की कलाइयाँपकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दिखाएँ कि लोग शरमाते-शरमाते भी कुछ--कुछ दे ही मरें। आबादीजान औरचौधरी साहब में सलाह होने लगी। मैं संयोग से उन दोनों प्राणियों की बातें सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझाहोगा, यह लौंडा क्या मतलब समझेगा। पर यहाँ ईश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे। सारी दास्तान समझ मेंआती-जाती थी। चौधरी - सुनो आबादीजान, यह तुम्हारी ज़्यादती है। हमारा और तुम्हारा कोई पहला साबिका तो हैनहीं। ईश्वर ने चाहा तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा। अब की चंदा बहुत कम आया, नहीं तो मैं तुमसेइतना इसरार करता।

आबादी - आप मुझसे भी ज़मींदारी चालें चलते हैं, क्यों? मगर यहाँ हुजूर की दाल गलेगी। वाह! रुपए तो मैं वसूलकरूँ, और मूँछों पर ताव आप दें। कमाई का अच्छा ढंग निकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजाहो जाएँगे। उसके सामने ज़मींदारी झक मारेगी! बस, कल ही से एक चकला खोल दीजिए! खुद की कसम, मालामालहो जाइएगा।
चौधरी - तुम दिल्लगी करती हो, और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।
आबादी - तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं। यहाँ आप-जैसे काइयों को रोज़ उँगलियों पर नचाती हूँ।
चौधरी - आखिर तुम्हारी मंशा क्या है?
आबादी - जो कुछ वसूल करूँ, उसमें आधा मेरा, आधा आपका। लाइए हाथ मारिए।
चौधरी - यही सही।
आबादी - अच्छा, वो पहले मेरे सौ स्र्पए गिन दीजिए। पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।
चौधरी - वाह! वह भी लोगी और यह भी।
आबादी - अच्छा! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी? वाह री आपकी समझ! खूब, क्यों हो।दीवाना बकारे दरवेश हुशियार!
चौधरी - तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है?
आबादी - अगर आपको सौ दफे गरज हो, तो। वरना मेरे सौ रुपए तो कहीं गए ही नहीं। मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जोलोगों की जेब में हाथ डालती फिरूँ?

चौधरी की एक चली। आबादी के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबादीजान बला की शोख औरत थी। एकतो कमसिन, उस पर हसीन। और उसकी अदाएँ तो इस ग़ज़ब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी।आदमियों के पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम था। जिसके सामने बैठ गई, उससे कुछ--कुछ ले ही लिया।पाँच रुपए से कम तो शायद ही किसी ने दिए हों। पिताजी के सामने भी वह बैठी। मैं मारे शर्म के गड़ गया। जबउसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि पिताजी उसका हाथ झटक देंगे और शायददुत्कार भी दें, किंतु यह क्या हो रहा है! ईश्वर! मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। पिता जी मूँछों में हँस रहे हैं। ऐसीमृदु-हँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखा थी। उनकी आँखों से अनुराग टपक पड़ता था। उनका एक-एक रोमपुलकित हो रहा था, मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबादी के कोमल हाथों से अपनीकलाई छुड़ा ली। अरे! यह फिर क्या हुआ? आबादी तो उनके गले में बाँहें डाले देती है। अब पिता जी उसे ज़रूरपीटेंगे। चुड़ैल को ज़रा भी शर्म नहीं।

एक महाशय ने मुस्कराकर कहा, ''यहाँ तुम्हारी दाल गलेगी, आबादीजान! और दरवाज़ा देखो।'' बात तो इनमहाशय ने मेरे मन की कही, और बहुत ही उचित कही, लेकिन जाने क्यों पिता जी ने उसकी ओर कुपित-नेत्रों सेदेखा, और मुँछों पर ताव दिया। मुँह से तो वह कुछ बोले, पर उनके मुख की आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दों मेंकह रही थी, ''तू बनिया, मुझे समझता क्या है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं। रुपए कीहकीकत ही क्या! तेरा जी चाहे, आज़मा ले। तुझसे दूनी रकम दे डालूँ, तो मुँह दिखाऊँ! महान आश्चर्य! घोरअनर्थ! अरे, ज़मीन तू फट क्यों नहीं जाती? आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता? अरे, मुझे मौत क्यों नहीं जाती!'' पिता जी जेब में हाथ डाल रहे हैं। वह कोई चीज़ निकली, और सेठ जी को दिखाकर आबादीजान को दे डाली।
आह! यह तो अशर्फी है। चारों ओर तालियाँ बजने लगीं। सेठजी उल्लू बन गए। पिताजी ने मुँह की खाई, इनकानिश्चय मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिता जी ने एक अशर्फी निकालकर आबादीजान को दी।उनकी आँखों में इस समय इतना गर्वयुक्त उल्लास था मानो उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो। यही पिता जीहैं, जिन्होंने मुझे आरती में एक रुपया डालते देखकर मेरी ओर उस तरह देखा था मानो मुझे फाड़ ही खाएँगे। मेरे उसपरमोचित व्यवहार से उनके रोब में फ़र्क आता था, और इस समय इस घृणित, कुत्सित और निंदित व्यापार परगर्व और आनंद से फूले समाते थे। आबादीजान ने एक मनोहर मुस्कान के साथ पिता जी को सलाम किया औरआगे बढ़ी, मगर मुझसे वहाँ बैठा गया। मेरा शर्म के मारे मस्तक झुका जाता था, अगर मेरी आँखों-देखी बात होगी, तो मुझे इस पर कभी एतबार होता। मैं बाहर जो कुछ देखता-सुनता था, उसकी रिपोर्ट अम्माँ से ज़रूरकरता था। पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुख होगा।
रात भर गाना होता रहा। तबले की धमक मेरे कानों में रही थी। जी चाहता था, चलकर देखूँ, पर साहस होताथा। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा? कहीं किसी ने पिता जी का ज़िक्र छेड़ दिया, तो मैं क्या करूँगा?

प्रात:काल रामचंद्र की बिदाई होनेवाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा। डर रहाथा कि कहीं रामचंद्र चले गए हों। पहुँचा, तो देखा - तवायफ़ों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमीहसरतनाक मुँह बनाए उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख तक उठाई। सीधा रामचंद्र के पास पहुँचा। लक्ष्मणऔर सीता बैठे रो रहे थे, और रामचंद्र खड़े काँधे पर लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे। मेरे सिवा और कोई था।मैंने कुंठित-स्वर से रामचंद्र से पूछा, ''क्या तुम्हारी बिदाई हो गई?''

रामचंद्र- ''हाँ, हो तो गई। हमारी बिदाई ही क्या?'' चौधरी साहब ने कह दिया - ''जाओ, चले जाते हैं।''
'क्या रुपया और कपड़े नहीं मिले?''
''अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं - इस वक्त बचत में रुपए नहीं हैं। फिर आकर ले जाना।''
''कुछ नहीं मिला?''
''एक पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था, कुछ रुपए मिल जाएँगे तो पढ़ने की किताबें लेलूँगा! सो कुछ मिला। राह-खर्च भी नहीं दिया। कहते हैं - ''कौन दूर है, पैदल चले जाओ!''

मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथों लूँ। वेश्याओं के लिए रुपए, सवारियाँ सबकुछ, पर बेचारेरामचंद्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं! जिन लोगों ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपएन्योछावर किए थे, उनके पास क्या इनके लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नहीं? पिता जी ने भी तो आबादीजानको एक अशर्फी दी थी। देखूँ इनके नाम पर क्या देते हैं! मैं दौड़ा हुआ पिता जी के पास गया। वह कहीं तफ़तीश परजाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले - ''घूम रहे हो? पढ़ने के वक्त तुम्हें घूमने की सूझती है?''

मैंने कहा - ''गया था चौपाल। रामचंद्र बिदा हो रहे थे। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया।''
''तो तुम्हें इसकी क्या फिक्र पड़ी है?''
''वह जाएँगे कैसे? पास राह-खर्च भी तो नहीं है!''
'क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया? यह चौधरी साहब की बेइंसाफ़ी है।''
''आप अगर दो रुपए दे दें, तो मैं उन्हें दे आऊँ। इतने में शायद वह घर पहुँच जाएँ।''

पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा - ''जाओ, अपनी किताब देखो, मेरे पास रुपए नहीं हैं।''
यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दिन से पिता जी पर से मेरी श्रद्धा उठ गई। मैंने फिर कभी उनकीडांट-डपट की परवाह नहीं की। मेरा दिल कहता - आपको मुझको उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। मुझे उनकीसूरत से चिढ़ हो गई। वह जो कहते, मैं ठीक उसका उल्टा करता। यद्यपि इससे मेरी हानि हुई, लेकिन मेराअंत:करण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।

मेरे पास दो आने पैसे पड़े हुए थे। मैंने पैसे उठा लिए और जाकर शरमाते-शरमाते रामचंद्र को दे दिए। उन पैसों कोदेखकर रामचंद्र को जितना हर्ष हुआ, वह मेरे लिए आशातीत था। टूट पड़े, प्यासे को पानी मिल गया।
यही दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुई! केवल मैं ही उनके साथ क़स्बे के बाहर तक पहुँचाने आया।
उन्हें बिदा करके लौटा, तो मेरी आँखें सजल थीं, पर हृदय आनंद से उमड़ा हुआ था।

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