यह तो अच्छी बात थी, पर इससे हुआ यह कि प्रजा राजा का उतना सम्मान नहीं करती थी, जितना पुराने राजा काकरती थी। नागरिक उसे अब भी अपने पास-पड़ोस का लड़का मानते थे। दूसरे राजाओं की तरह इस राजा कारौब-दाब न था। यह अजब मुश्किल थी। वह भला आदमी था, इसलिए प्रजा पर ज़ुल्म भी नहीं कर सकता था। न तोवह ढिंढोरा पिटवा सकता था कि मैं अब राजा बन गया हूं, इसलिए मेरा ़ज्यादा सम्मान करो। लेकिनमहत्वाकांक्षी तो था ही। वह भी चाहता था कि उसे भरपूर मान-सम्मान मिले।
राजा ने दिमाग़ लगाया। उसके महल में वैभव की कोई कमी न थी। यहां तक कि उसका पैर धोने का पात्र भी सोनेका था। राजा ने उस बर्तन को गलवाकर उस सोने से एक महापुरुष की मूर्ति बनवाई और उसे नगर के बीचो-बीचचौराहे पर लगवा दिया। लोगों के दिलों में महापुरुष के प्रति सच्ची श्रद्धा थी। सो, उस चौराहे से गुज़रने वाले लोग उसमूर्ति के आगे सिर झुकाते, उसे प्रणाम करते।
राज्य उत्सव का समय आया, तो राजा ने उसी चौराहे पर एक बड़ी सभा का आयोजन किया। राजा ने बोलना शुरूकिया, ‘मैं सबसे पहले इन महापुरुष को नमन करता हूं।’ प्रजा ने भी ऐसा ही किया। राजा बोला, ‘क्या आप लोगजानते हैं कि यह मूर्ति किस चीज़ की बनी है?’ ‘सोने की।’ ढेर सारी आवाज़ें आईं। राजा ने कहा,‘पर मैं आपकोबताना चाहता हूं कि यह सोना पैर धोने वाले पात्र का है।’
राजा ने आगे कहा, ‘मैं भी इस मूर्ति की तरह हूं। मैं भी पहले मामूली काम करता था, पर अब राजा बन गया हूं। तोजिस तरह महत्व मूर्ति का है, उसी तरह महत्व मेरे पद का है।’ प्रजा समझ गई कि राजा क्या कहना चाहता है औरउस दिन से उसके प्रति लोगों का नज़रिया बदल गया।
सबक़
कोई भी निचले दर्जे से शुरुआत कर बहुत ऊपर पहुंच सकता है और अपने ही सहकर्मी रहे लोगों का बॉस बन सकता है। लेकिन बॉस के रूप में उनसे पर्याप्त सम्मान पाने के लिए उसे कोई उपाय तो करना ही पड़ेगा।
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